नारी जीवन

नारी इस जग में सबसे महान होती है,
वो नदियों में गंगा सामान होती है.
छोटी सी, चंचल सी खेलती है,
पिता के घर हिमालय की गोदी में.
दुनिया संसार के मोह से दूर,
चंचल- अठखेलियो से पूर्ण.
धीरे- धीरे वो बड़ी होती है
किनारे पे आकर पृथ्वी को देखती है.
सुनहरे ख्वाब सी मन में तरंग उठती है.
वो दुनिया कितनी खुबसूरत है,
वहा कोई प्यारा सा मूरत है.
नई जोश आती है, कुछ होश जाती है.
एक इच्छा, होगा कैसा  वो जहा,
काश मै होती वहा.
छोटी सी, नन्ही सी हो जाती है कुछ तरुण.
और करती है  पृथ्वी का वरण.
सुब कुछ नया सा, मन भी जावा सा.
पत्थरो को तोड़ते  हुए,
जमी को फोड़ते हुए.
उमंग तरंग से, तुरंग प्रवाह में,
चलती  नहीं  किसी के प्रभाव में.
धरे - धीरे वो आगे बढने  लगी,
स्वरुप में गंभीरता छाने लगी.
क्षेत्र कुछ बिस्तृत होगया,
लोगो का उससे उद्द्येश्य हो गया.
सारी चंचलता गंभीर हो गयी,
दूसरो के लिए जीना नियति बन गयी.
कर्तब्य निभाते हुए,
खुशिया देते हुए.
इस दुनिया को जान गयी
सुब कुछ पहचान गयी.
ये पृथ्वी दूर से कितनी सुनहरी है,
पर ये अनचाहे कर्तब्यो की दुपहरी है.
अब बस एक ही  है आशा,
महासागर में  मिल जाने की अभिलाषा.

टिप्पणियाँ

  1. kavita ki jyada samjha mujhe nahi hai par jo bhi samjha aaya wo achcha laga achcha likhati hai nirantar likha kare .agali post ka entajar rahega

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

“मनोविकारक युग”

ये ज़िन्दगी गले लगा जा ......

कमिटमेंट जीवन के साथ