जीने की कला

मेरे आस पास ऐसे लोग ज्यादा है जो आपने जीवन को जीने में विश्वाश करते है। हा लोगो के अनुसार उनके जीवन में समाज के अनुरूप स्थितिया अवश्य नहीं है, क्यों कि आस पास उनके वो लोग होते है जो अपने जीवन को जीने की जगह समाज को जीने में ख़ुशी रखते है। पर हमें बहुत अच्छा लगता है जब हमारे अंदर एक ख़ुशी की नदी प्रतिपल कलकल छलछल करती रहती है, जीवन की कोई भी स्थिति हो शांति बनी रहती है, जीवन से हमें तब भी उतना लगाव होता है, उतना ही प्यार रहता है जब स्थितिया हमारे अनुकूल नहीं होती है । इस स्थिति में वाही जी सकते है जो आपने आप को जीते है.
पर मै उनलोगों की तरफ भी ध्यान देती हू, जो अपने जीवन को ना जीकर, समाज को जीने में आपना संपूर्ण जीवन लगा देते है, अपने और समाज के द्वन्द में ना जाने कितने चहरे को जीते है, और जो उनका जीवन है उसे ना जीकर ना जाने कितने जाने पहचाने लोगो के जीवन को जीते है। जब जन्म और जीवन के बाद अंत सत्य के करीब पहुचते है तो उन्हें लगता है की अरे ये क्या हुआ, मैने तो अभी अपने आप को जिया ही नहीं, पर उस समय कुछ भी नहीं किया जा सकता। हर मनुष्य ये भूलता जा रहा है की जब वो अपनी माँ के गर्भ से इस धरती पर जन्म लेता है तो अपने आप की अंतर्शक्ति और अंतरविशेषता लेकर पैदा होता है। उसका विकास उसके स्वयं के आतंरिक शक्ति के अनुरूप होकर ही उसे उसके जीवन के उद्देश तक पंहुचा सकता है। आप इसे यू समझ सकते है कि हर बीज से एक पौधे का जन्म होता है जो दुसरे से बिल्कुल भिन्न होता है। हर पौधे में एक आपनी खूबसुरती छुपी होती है और हम कभी इच्छा भी नहीं करते की एक पौधा दुसरे जैसा हो। फिर मनुष्य क्यों ?
मनुष्य भी तो उसी की रचना है जिसने पुरे ब्रह्मांड की रचना की है ।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

“मनोविकारक युग”

ये ज़िन्दगी गले लगा जा ......

"चुस्की ले तो मनवा फेंटास्टिक हो जाये "