Khol do bandhno ko ...
खोल दो सारे बंधनो को .. मन के घोड़े पे सवार इच्छाओ को मुक्त आकाश में उड़ने दो .. कभी कभी आसमा को छूकर जमी पे गिरना अच्छा लगता है .. इस गिरने में आसमा और धरती की दूरी एहसास होता है .. मिलना तो वैसे भी एक दिन मिटटी में है .. क्यों न उड़ कर ही मिले.. न जाने इस उड़ान में बदलो की कुछ बून्द भी समां जाये . और जब मिटटी में मिले तो सोधि खुशबू आजाये .. जो अक्सर लोग को बरबस खीच लेती है .. हर लम्हा, हर वो ख्वाहिशे जीने के लिए है ,, जो हम अक्सर खुली आँखों से देखते है.. खोलो तो सही .. बंधनो के धागो को .. काटने से .. गिरने से क्यों डरते हो .. जीना इसी धरती पे है .. गिरना भी इसी धरती पे है .. तो फिर क्यों न ख्वाहिशो की उड़ान भर कर .. बदलो के कुछ बून्द चुरा कर, गिरे उसका मजा ही कुछ और है ... टूटना बिखरा भी मन का ही खेल है .. तो फिर खेल को पूरा खेल कर ही क्यों न जाये ... खोल दो सारे बंधनो को .. मन के घोड़े पे सवार इच्छाओ को मुक्त आकाश में उड़ने दो ..